गुज़रें फिर एक हादसा-ए-ख़ूँ-चकाँ से हम ऐ दोस्त ऐसा हौसला लाएँ कहाँ से हम हर दिन हैं मुश्किलात ओ मसाइल नए नए शायद गुज़र रहे हैं किसी इम्तिहाँ से हम पैदा हो कैसे जज़्बा-ए-तस्ख़ीर-ए-काएनात आज़ाद ही न हो सके वहम-ओ-गुमाँ से हम अपने लिए जो बाइ'स-ए-सद-इफ़्तिख़ार थी अब उस घड़ी को ढूँड के लाएँ कहाँ से हम रहज़न का ख़ौफ़ छोड़िए पहले ये सोचिए ख़ुद को बचा के कैसे रखें पासबाँ से हम कैसे अलग करेंगी ज़माने की गर्दिशें हिन्दोस्ताँ है हम से तो हिन्दोस्ताँ से हम 'मक़बूल' क्या करें कि तबीअ'त है हक़-पसंद महज़ूज़ होने वाले नहीं दास्ताँ से हम