हाँ महफ़िल-ए-याराँ में ऐसा भी मक़ाम आया मैं ख़ुद को भुला बैठा जब भी तिरा नाम आया मैं अपने ही पैकर से इस दर्जा परेशाँ था सोचा कि बिखर जाऊँ जब भी तह-ए-दाम आया दुनिया में हज़ारों हैं मंसूर भी सरमद भी क्यूँ लौह-ए-सदाक़त पर इक मेरा ही नाम आया क्या जिस्म के ज़िंदाँ से आज़ाद किया मुझ को क्या कोई सर-ए-मक़्तल यारो मिरे काम आया हर शख़्स के चेहरे पर इक कर्ब का मंज़र है शायद लब-ए-गेती पर तख़रीब का नाम आया