हद-ए-उनवाँ से आगे आख़िर अफ़्साने कहाँ जाते तिरी महफ़िल से बढ़ कर तेरे दीवाने कहाँ जाते हक़ीक़त से गुज़र कर आइना-ख़ाने कहाँ जाते अगर हम तक नहीं आते तो पैमाने कहाँ जाते ग़म-ए-दौराँ ने बढ़ कर लौ बढ़ा दी शम-ए-हस्ती की ग़म-ए-जानाँ के ये भटके हुए जाने कहाँ जाते निगाहें थीं हमारी फ़र्क़-ए-ख़ास-ओ-आम से आगे अगर वो आ भी जाते हम से पहचाने कहाँ जाते ये रिंदों की है शान-ए-बे-नियाज़ी साक़ियो वर्ना न जाने तुम कहाँ होते ये मयख़ाने कहाँ जाते भरम अश्क-ए-अलम का रख लिया ज़र्रों के सीनों ने सितारों की जबीनें वर्ना सुलगाने कहाँ जाते बहार आए बग़ैर उन पर 'शिफ़ा' है बे-ख़ुदी तारी बहार आती तो क्या मालूम मस्ताने कहाँ जाते