हादसे ग़म के शब-ओ-रोज़ गुज़रते ही रहे हम जो करना था बहर-तौर वो करते ही रहे उन से दुनिया को नुमाइश के सिवा कुछ न मिला आइना सामने रख कर जो सँवरते ही रहे हक़-परस्ती के उसूलों का हुआ हम से फ़रोग़ लोग आग़ाज़ में अंजाम से डरते ही रहे किसी क़ाबिल तो न था गुलशन-ए-हस्ती अपना क़ाफ़िले फिर भी बहारों के ठहरते ही रहे ज़ीनत-ए-मंसब-ए-आली हुए दुनिया के हरीस और हक़दार बुलंदी से उतरते ही रहे अपनी आँखों में मोहब्बत के सिमट कर जल्वे कुछ इस अंदाज़ से निखरे कि निखरते ही रहे उम्र भर ज़ौक़-ए-फ़न-ए-शेर रहा हम को 'ख़लीक़' रंग जज़्बात का अशआ'र में भरते ही रहे