हाए आलम वो उस से रुख़्सत का एक मंज़र था बस क़यामत का काम सारा ख़राब करने में दख़्ल है सिर्फ़ मेरी उजलत का मैं मुरव्वत में मारा जाता हूँ क्या करूँ अपनी इस तबीअत का मुझ से कैसे निबाह कीजिएगा मैं तो बंदा हूँ बस ज़रूरत का गोशा-गीरी मुझे ग़नीमत है शौक़ मुझ को नहीं है शोहरत का कोई बतलाए शैख़ साहब को क्या तक़ाज़ा है आदमिय्यत का मा'ज़रत मैं उठा नहीं सकता बार अब आप की अमानत का आज इक आदमी मिला था मुझे हू-बहू आप जैसी सूरत का माँ मुजस्सम दुआ है मेरे लिए बाप है साएबान शफ़क़त का मुझ से कुछ बुल-हवस हैं जिन से 'वसीम' नाम बदनाम है मोहब्बत का