है दिल को मेरे आरिज़-ए-जानाँ से इर्तिबात बुलबुल को जिस तरह हो गुलिस्ताँ से इर्तिबात मुझ दर्द-मंद-ए-इश्क़ की तदबीर है अबस होगा न मेरे दर्द को दरमाँ से इर्तिबात बंदा हूँ इश्क़ का नहीं मज़हब से मुझ को काम क्यूँकर करूँ मैं गबरू मुसलमाँ से इर्तिबात है रब्त मुझ को कूचा-ए-जानाँ से रोज़-ओ-शब मजनूँ को जिस तरह था बयाबाँ से इर्तिबात मज़हब है मेरा इश्क़ और रिंदी है मेरा काम है कुफ़्र से न मुझ को न ईमाँ से इर्तिबात है रब्त मुझ को क़ामत-ए-जानाँ से जिस तरह क़ुमरी का होवे सर्व-ए-गुलिस्ताँ से इर्तिबात 'आसिम' जहान में शह-ए-ख़ादिम के मैं सिवा काफ़िर हूँ गर करूँ किसी इंसाँ से इर्तिबात