ज़ोर से आँधी चली तो बुझ गए सारे चराग़ गुम हुए जाते हैं तारीकी में मंज़र और मैं हाथ से बच्चों के निकले मेरी झोली में गिरे बन गए हैं दोस्त ये बच्चों के पत्थर और मैं पर नहीं लेकिन मयस्सर ताक़त-ए-परवाज़ है देखिए उड़ते फ़ज़ाओं में कबूतर और मैं अब तमानिय्यत बहुत महसूस होती है मुझे हो गया है हम-सुख़न नीला समुंदर और मैं कैसे कैसे ख़ूब-रू चेहरे थे सब के सामने महव-ए-हैरत हो गया है सारा दफ़्तर और मैं कोई भी पेचीदगी हाएल नहीं अनवर-'सदीद' ज़िंदगी है सामने मंज़र-ब-मंज़र और मैं