हाकिम-ए-दिल बन गई हैं ये थियेटर वालियाँ मैं लगाऊँगा गुल-ए-दाग़-ए-जिगर की डालियाँ ज़ब्त के जामे के बख़िया टूटते हैं दोस्तो हाए ये बेलें कशीदे और ऐसी जालियाँ हूर मुस्तक़बिल परी माज़ी मगर ये हाल हैं दी-ओ-फ़र्दा क्या करूँ पाऊँ जो ये ख़ुश-हालियाँ आसमाँ से क्या ग़रज़ जब है ज़मीं पर ये चमक माह-ओ-अंजुम से हैं बढ़ कर उन के बुंदे बालियाँ फ़ूल वो कहती हैं मुझ को मैं उन्हें समझा हूँ फूल हैं गुल-ए-रंगीं से बेहतर उन गुलों की गालियाँ