है ख़ुद से ख़ुश-गुमानी तो किसी का इम्तिहाँ क्यों हो जहाँ में कोई भी 'मख़फ़ी' किसी से बद-गुमाँ क्यों हो नज़र को शौक़ बख़्शा तो सरापा आँख हो जाऊँ कसाफ़त की कोई चादर हिजाब-ए-दरमियाँ क्यों हो नहीं जिस का मकाँ उस की मोहब्बत में जो उड़ता हो कहीं भी मुद्दआ' उस का सुकून-ए-आशियाँ क्यों हो वफ़ा-ए-हक़ की आदत यूँ हो जैसे साँस लेते हो रज़ा की राह के राही का कोई राज़-दाँ क्यों हो इरादे को क़द-आवर कर बलाएँ मुँह छुपाएँगी रहे फिर धूप कैसी ही तो कोई साएबाँ क्यों हो रग-ए-जाँ से क़रीब उस को करो महसूस 'मख़फ़ी' तो कहीं भी क्यों नहीं मिलता ख़ुदा तो है कहाँ क्यों हो