याद-ए-माज़ी के दिए यूँ दिल-ए-वीराँ में जलें जिस तरह शमएँ किसी गोर-ए-ग़रीबाँ में जलें ग़म-ए-दौराँ में जलें या ग़म-ए-जानाँ में जलें हम को जलना है सहर तक किसी ऐवाँ में जलें राख के ढेर हैं हम कौन कुरेदे हम को लाख हम अहल-ए-वफ़ा आतिश-ए-पिन्हाँ में जलें आज बुझने को है ये भी दिल-ए-मुफ़्लिस की तरह कब तक आँखों के कँवल फ़ुर्क़त-ए-जानाँ में जलें है हमारा ही लहू जाम में रक़्साँ साक़ी हम वो हैं जिन के मकाँ जश्न-ए-बहाराँ में जलें काश हो जाए जहाँ शो'ला-ब-दामाँ 'नक़वी' जिस्म इंसान के क्यों आतिश-ए-इंसाँ में जलें