है कोई दर्द मुसलसल रवाँ-दवाँ मुझ में बना लिया है उदासी ने इक मकाँ मुझ में मिला है इज़्न-ए-सुख़न की मसाफ़तों का फिर खुले हुए हैं तख़य्युल के बादबाँ मुझ में सहाबी शाम सर-ए-चश्म फैलते जुगनू किसी ख़याल ने बो दी ये कहकशाँ मुझ में मुहाजरत ये शजर-दर-शजर हवाओं की बसाए जाती है ख़ाना-बदोशियाँ मुझ में अजीब ज़िद पे ब-ज़िद है ये मुश्त-ए-ख़ाक-बदन अगर है मेरी रहे फिर ये मेरी जाँ मुझ में मिरा वजूद बना है ये कैसी मिट्टी से समाए जाती हैं कितनी ही हस्तियाँ मुझ में