इस चमन में हम-नफ़स क्यों इस क़दर नायाब है

इस चमन में हम-नफ़स क्यों इस क़दर नायाब है
हर ममोला क्यों समझता है कि वो सुरख़ाब है

मैं तो समझा था कि दरिया-ए-सितम पायाब है
क्या पता था दो किनारों में छुपा सैलाब है

क्यों तिरी ख़ुशबू से महका एक इक ज़र्रा यहाँ
क्यों तिरी आवाज़ मेरी रूह का मिज़राब है

एक मैं ही तो नहीं इस शहर में कुछ बे-क़रार
जाँ-ब-लब तेरी तलब में हर कोई बेताब है

इक जगह पर टिक के बैठे ये तो हो सकता नहीं
हर घड़ी हरकत में रहता है ये दिल सीमाब है

है किसी के हुस्न के सूरज की इक हल्की किरन
ख़ुद से रौशन है कहाँ चेहरा अगर महताब है

घात में रुस्तम तिरी तक़दीर का बैठा हुआ
गरचे तू अपने तईं तदबीर का सोहराब है

दर्द का दरिया 'हिदायत' शे'र के कूज़े में बंद
और ग़ज़ल की बहर में अफ़्कार का गिर्दाब है


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