है वही दौर-ए-सितम मश्क़-ए-सितम आज भी है लोग ज़िंदा हैं मगर ज़ीस्त का ग़म आज भी है किस को फ़ुर्सत है कि मज़लूम के आँसू पोंछे वही आँसू हैं वही दामन-ए-नम आज भी है मेहरबाँ कहिए उसे या कि सितमगर कहिए हर सितम उस का ब-अंदाज़-ए-करम आज भी है ख़ून-ए-मज़लूम की तारीख़ लिखी है जिस से हाथ में मेरे वो बेबाक क़लम आज भी है जैसे मिलने ही को है साया-ए-दामाँ तेरा ना-उमीदी में भी उम्मीद-ए-करम आज भी है अब भी मंज़िल पे पहुँचना नहीं आसान 'पयाम' रहगुज़ारों में वही पेच वो -ख़म आज भी है