हर इक नक़्श-ए-क़दम शम-ए-फ़रोज़ाँ होता जाता है जहाँ से वो गुज़रते हैं चराग़ाँ होता जाता है हैं सदहा चाक ऐसी ज़िंदगी भी ज़िंदगी क्या है लिबास-ए-ज़ीस्त आशिक़ का गरेबाँ होता जाता है न पूछो जाँ-फ़ज़ा है कितना हुस्न-ए-यार का मौसम कि जो मंज़र भी है सुब्ह-ए-बहाराँ होता जाता है सनम को भूल कर दिल क्यों ख़ुदा की सम्त माइल है ख़ुदा जाने ये काफ़िर क्यों मुसलमाँ होता जाता है मुबारक हैं क़दम अहल-ए-वफ़ा के राह-ए-उल्फ़त में कि इन क़दमों से राहों में चराग़ाँ होता जाता है सितम के बाद इज़हार-ए-नदामत भी है क्या कहिए सितम भी करता जाता है पशेमाँ होता जाता है 'पयाम' उस को मैं अपनाने को जितना बढ़ता जाता हूँ ख़ुदा जाने वो क्यों मुझ से गुरेज़ाँ होता जाता है