हैं बाम-ओ-दर के जिस्म कटे और जले हुए गलियों के पैरहन हैं लहू में भरे हुए जंगल की रात हो गई आबादियों की रात हैं कुंज-कुंज ख़ौफ़-ज़दा जागते हुए ऐ अहल-ए-शहर ऐसी भी क्या बे-रुख़ी कि हम परदेस तो ख़ुशी से नहीं थे गए हुए मैं वो नहीं रहा कि ये वो शहर ही नहीं यार आश्ना कहाँ कि हैं दुश्मन खिंचे हुए हम को भी तुम से पुर्सिश-ए-ग़म की उमीद थी दुनिया में तुम से दूर कई हादसे हुए सब ग़म-ज़दा हैं किस पे गुमाँ कीजे क़त्ल का मक़्तूल के जनाज़े में सब हैं गए हुए कैसा गिला कहाँ का तक़ाज़ा कहाँ सवाल वो सर से पाँव तक हैं तग़ाफ़ुल बने हुए फिरते हो किस को पूछते 'क़ैसी' के नाम से उस शख़्स को ज़माना हुआ है मरे हुए