हैं नादाँ जो भी इंसाँ उन की नादानी नहीं जाती वो लड़ते रहते हैं और ख़ू-ए-हैवानी नहीं जाती सलफ़ ने जो बनाए थे वो ऐवाँ मिट नहीं सकते खड़े हैं सर उठाए शान-ए-ऐवानी नहीं जाती जहाँ में नेक ख़सलत नेक निय्यत जो भी होते हैं जवानी में भी उन की पाक-दामानी नहीं जाती सितारों से फ़ज़ा शब को मुनव्वर होती रहती है मगर उन में जो पोशीदा है वीरानी नहीं जाती तख़य्युल में तसव्वुर में वो मेरे पास होते हैं निगाहों से ज़रा उन की निगहबानी नहीं जाती ज़माने में हमारा ख़ूँ बहुत अर्ज़ां है ऐ 'बासिर' किसी सूरत हमारे ख़ूँ की अर्ज़ानी नहीं जाती