हज़ार मस्लहत-ए-वक़्त साथ साथ रही जुनूँ के सामने बाज़ी ख़िरद की मात रही जहाँ भी मैं ने इमारत का एहतिराम किया वहीं पे रूठ के मुझ से मिरी हयात रही तिरी निगाह-ए-करम पर यक़ीन क्या आया फ़रेब-ए-हुस्न में ये सारी काएनात रही वो इक कली ने चटक कर चमन को समझा दी जो बात-चीत सितारों से सारी रात रही ख़िरद ने लाख दिखाईं वफ़ा की तस्वीरें मिरी निगाह मगर जानिब-ए-फ़ुरात रही वो दश्त हो कि फ़लक-बोस गुंबद-ओ-मेहराब ग़रज़ कि हो के मोहब्बत की वारदात रही ये अपने अपने समझने का फ़र्क़ है 'राजे' कहाँ निगाह-ए-करम नज़र-ए-इल्तिफ़ात रही