हाल-ए-दिल तुझ पे आश्कार किया ज़ीस्त को अपनी ख़ुश-गवार किया सोज़-ए-दिल का ग़म-ए-मोहब्बत का तज़्किरा हम ने बार बार किया हम न ग़ाफ़िल रहे किसी लम्हा अपनी हर साँस का शुमार किया हो गए हम हलाक ख़ुद लेकिन बाग़-ए-हस्ती को पुर-बहार किया कश्मकश में गुज़ार दी सब उम्र हम ने कब ऐश इख़्तियार किया की न तक़लीद हम ने ग़ैरों की अपने मालिक पे ए'तिबार किया जब बहुत मुज़्तरिब हुए 'साक़ी' अपनी हस्ती को तार-तार किया