हर आदमी है मुब्तला रंज-ओ-अज़ाब में आराम से है कौन जहान-ए-ख़राब में रिंदों को कब है दोज़ख़-ओ-जन्नत से वास्ता ज़ाहिद मगर लगे हैं हुसूल-ए-सवाब में जो लोग हैं ज़माने में सरगर्म-ओ-मुस्तइद रहते नहीं उलझ के ख़याल और ख़्वाब में जिस की ज़िया से होनी थी तज़ईन-ए-काएनात वो हुस्न छुप सका न किसी भी हिजाब में दुनिया है जिस का नाम मुकम्मल फ़रेब है अहल-ए-नज़र न खोएँ कभी इस सराब में ये वाक़िआ' है हज़रत-ए-‘साक़ी’ की ज़िंदगी अब क़ैद हो के रह गई जाम-ए-शराब में