हम हर क़दम पर सोच का रुख़ मोड़ते रहे कितने सनम बनाते रहे तोड़ते रहे हलचल जो दिल में थी वो न लफ़्ज़ों में ढल सकी रिश्ते ज़बान ओ दिल के बहुत जोड़ते रहे उभरा किए शोकूक नए दिल में हर घड़ी हर दम नया शगूफ़ा कोई छोड़ते रहे ख़ुद में थे ऐसे दहर से ना-आश्ना रहे रौशन हक़ीक़तों से भी मुँह मोड़ते रहे परतव था इक जमाल का आया गुज़र गया साया था जिस के पीछे सदा दौड़ते रहे अब तक जुनून-ए-इश्क़ की हैं सर-बुलंदियाँ नाहक़ ख़िरद के नाम पे सर फोड़ते रहे