हम ख़ुदाई का दावा तो करते नहीं बंदगी पर भी पूरे उतरते नहीं यूँ तो क़ाएम हैं ईमाँ पे अपने मगर दिल के वहम-ओ-गुमाँ से मुकरते नहीं जुज़्व-ए-हक़ हैं नहीं हम किसी के मुतीअ ख़ुद पे नाज़ाँ हैं बातिल से डरते नहीं अपनी ख़ुद-ए'तिमादी का आलम है ये टूट जाने पे भी हम बिखरते नहीं दिल में जब तक न हो इक कसक दर्द की आदमिय्यत के जौहर निखरते नहीं है न दुनिया ही अपनी न अपना ख़ुदा बे-कसी के ये दिन अब गुज़रते नहीं