हम जो देहात से शहरों की तरफ़ आए हैं इश्क़ और हुस्न के बिछड़े हुए हमसाए हैं एक बे-रंग से मौसम की हवा चलती है अब न वो धूप न पेड़ों के घने साए हैं कौन सा फूल हमें याद नहीं बचपन का कौन सा रंग जवानी का भुला पाए हैं गर्द-ए-अय्याम-ए-गुज़िश्ता भी तो साथ आई है हम तिरे पास अकेले तो नहीं आए हैं तेरी आँखें तो उजाले की अमीं हैं अब तक ये अंधेरे तो किसी और ने फैलाए हैं