हम जुनूँ को ज़िंदगी का मुस्तक़र समझा किए ऐ 'शिफ़ा' मंज़िल किधर थी और किधर समझा किए वाए ये कोताही-ए-एहसास-ओ-तंगी-ए-नज़र ज़िंदगी को ज़िंदगी भर मुख़्तसर समझा किए कारवाँ पहुँचे क़रीब-ए-सई-ए-अंजाम-ए-सफ़र और हम मफ़्हूम-ए-आग़ाज़-ए-सफ़र समझा किए बे-ख़ुदी ने किस क़दर गुमराह रक्खा इश्क़ को हम तसव्वुर ही को हुस्न-ए-मो'तबर समझा किए देख कर भी उन को हम मायूस-ए-नज़्ज़ारा रहे हर नज़र को लग़्ज़िश-ए-ज़ौक़-ए-नज़र समझा किए हुस्न के रंगीं मुअम्मे इश्क़ के ग़मगीन राज़ कुछ समझ में तो न आते थे मगर समझा किए ज़र्रे ज़र्रे का शुऊ'र ओ ज़ेहन को इरफ़ान था बे-ख़बर थे ख़ुद जो हम को बे-ख़बर समझा किए आज तक हम ने फ़रोग़-ए-दिल पे नज़रें ही न कीं मेहर-ओ-मह पर मुनहसिर अपनी सहर समझा किए दर-हक़ीक़त वो हलाकत-आफ़रीं निकली 'शिफ़ा' हम जिसे अब तक मोहब्बत की नज़र समझा किए