हमारा मसअला हल हो रहा है कि अब ये शहर जंगल हो रहा है किसी ने अपनी नाव क्या उतारी ये दरिया जैसे पागल हो रहा है मुसलसल रूह ज़ख़्मी हो रही है बदन मिस्मार पल पल हो रहा है मैं शिद्दत धूप की जब सह चुका हूँ कोई ऐसे ही बादल हो रहा है इन आँखों की अदम-ए-दिलचस्पियों से हमारा ख़्वाब बोझल हो रहा है मिरी साँसों का जाने क्या बनेगा तिरा आना मोअ'त्तल हो रहा है जहाँ के आख़िरी हिस्से में हूँ अब सफ़र-नामा मुकम्मल हो रहा है