हमारे दिल में कोई आरज़ू नहीं बाक़ी हमारे फूल में अब रंग-ओ-बू नहीं बाक़ी बहुत कही दिल-ए-नादाँ अदू नहीं बाक़ी मिरा अदू मिरे पहलू में तू नहीं बाक़ी तुम्हारे तीर की अब आरज़ू नहीं बाक़ी हुआ है पीप कलेजा लहू नहीं बाक़ी ये मय-कदा है कि मस्जिद ये आब है कि शराब कोई भी ज़र्फ़ बरा-ए-वुज़ू नहीं बाक़ी धरा है क्या मिरे घर में कि मोहतसिब लेगा पुर-अज़-शराब वो जाम-ओ-सुबू नहीं बाक़ी वो रह के ग़ैर की सोहबत में हो गए कुछ और वो बात पिछली सी अगली सी ख़ू नहीं बाक़ी थका पड़ा हूँ तो वामांदगी ये कहती है उन्हें किसी की भी अब जुस्तुजू नहीं बाक़ी जो मय की बूँद न निकली तो पड़ गया पानी ब-हाल-ए-ख़्वेश सुबू अब सुबू नहीं बाक़ी हमारी आप की बात उठ रही है महशर पर हमारी आप की कुछ गुफ़्तुगू नहीं बाक़ी जो निकले ख़ार तो दामन से सूइयाँ उलझीं जगह ज़रा सी कहीं बे-रफ़ू नहीं बाक़ी बढ़ी है बात क़यामत में झूटे वा'दे पर वो मुन्फ़इल है तो कुछ गुफ़्तुगू नहीं बाक़ी ये मोहतसिब है अबस घर को सूँघता फिरता कि बूँद-भर भी मय-ए-मुश्क-बू नहीं बाक़ी हुआ है आइने के साथ अक्स को सकता किसी में जान तिरे रू-ब-रू नहीं बाक़ी बहें शराब के दरिया तो हम को लुत्फ़ नहीं कि सब्ज़ा कुछ भी लब-ए-आबजू नहीं बाक़ी बढ़ी है पाक-निहादी ये बादा-नोशों की कि अब नमाज़ में क़ैद-ए-वुज़ू नहीं बाक़ी हमारी आँख में तारीक बज़्म-ए-आलम है जो ज़ेब-ए-बज़्म थे वो शम्अ'-रू नहीं बाक़ी 'रियाज़' मौत को क्यूँ मौत आई जाती है हमें तो मौत की भी आरज़ू नहीं बाक़ी