हमारे हाल से कोई जो बा-ख़बर रहता ख़याल उस का हमें भी तो उम्र-भर रहता जिसे भी ख़्वाहिश-ए-दीवार-ओ-दर हो सहरा में वो कम-नसीब तो अच्छा था अपने घर रहता हवा से टूट के गिरना मिरा मुक़द्दर था कि ज़र्द पत्ता था क्यूँकर मैं शाख़ पर रहता जो देखता हूँ ज़माने की ना-शनासी को ये सोचता हूँ कि अच्छा था बे-हुनर रहता हमारी वज्ह से होती न तेरी रुस्वाई हमारे साथ अगर तू न इस क़दर रहता तज़ाद क़ौल-ओ-अमल में हो जिस के ऐ 'नादिर' वो शख़्स कैसे निगाहों में मो'तबर रहता