होश में आ ज़िंदगी तू ने ग़लत समझा मुझे

होश में आ ज़िंदगी तू ने ग़लत समझा मुझे
दे नहीं सकती किसी मंज़िल पे भी धोका मुझे

मेरे अफ़्साने को फिर उन्वान में उलझा दिया
आप ने अपनी तरफ़ क्यों देख कर देखा मुझे

और तो हर तरह तकमील-ए-परस्तिश हो चुकी
सिर्फ़ अपने सामने करना है इक सज्दा मुझे

ज़िंदगी की उलझनें अब भी सुलझ जाएँ तमाम
इक ज़रा मेरा नफ़स गर छोड़ दे तन्हा मुझे

याद आ जाती है अपने वक़्त की बे-इख़्तियार
जब नज़र आता है कोई वक़्त का मारा मुझे

डूब मर ऐ ज़िंदगी ये क्या तिरे होते हुए
मौत आई है बताने के लिए रस्ता मुझे

उम्र-ए-रफ़्ता है ये ना-मुम्किन तुझे आवाज़ दूँ
आज तक तू ने पलट कर भी कभी देखा मुझे

वक़्त के हमराह मैं दुनिया से आगे बढ़ गया
ऐ 'शिफ़ा' आवाज़ देती रह गई दुनिया मुझे


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