हमारी आँखों के आगे महफ़िल में दौर-ए-जाम-ओ-सुबू चले हैं बस एक हम हैं कि तेरी महफ़िल से पी के अपना लहू चले हैं रहे सलामत चमन तुम्हारा रहे चमन में बहार क़ाएम हम अपनी बर्बादियों के सदक़े मिटा के हर आरज़ू चले हैं ख़ता तो दानिस्ता कुछ नहीं की मगर है एहसास-ए-जुर्म इतना कि आलम-ए-बे-ख़ुदी में शायद नज़र से चिलमन को छू चले हैं गुज़र रहा था उधर से देखा लिखा था ये 'नूर' की लहद पर मक़ाम-ए-इबरत है बस यहीं तक फ़रेब-ए-सद-रंग-ओ-बू चले हैं