मुहताज-ए-दीद-ओ-जल्वा करूँ क्यूँ नज़र को मैं नज़रों में खींच लाता हूँ जब जल्वा-गर को मैं देखूँ तो जुर्म और न देखूँ तो कुफ़्र है अब क्या कहूँ जमाल-ए-रुख़-फ़ित्ना-गर को मैं ऐसा नहीं कि दिल में मिरे ज़ख़्म ही न हो आँखों में रोक लेता हूँ ख़ून-ए-जिगर को मैं दामान-ए-सब्र छूटने लगता है हाथ से जब देखता हूँ दूरी-ए-शाम-ओ-सहर को मैं मंज़िल पे आ के आज ये समझा कि आज तक मंज़िल समझ रहा था फ़क़त रहगुज़र को मैं मंज़िल की जुस्तुजू में न जाने कहाँ कहाँ सर पर लिए फिरा हूँ ग़ुबार-ए-सफ़र को मैं इक क़स्र-ए-आरज़ू था गिरा टूट टूट कर हसरत से देखता रहा दीवार-ओ-दर को मैं मिलने को 'नूर' यूँ तो बहुत ग़म यहाँ मिले तरसा तमाम उम्र ग़म-ए-मो'तबर को मैं