हमीं नहीं ग़म-ओ-आलाम के सताए हुए हर एक शख़्स कोई दर्द है छुपाए हुए तुम्हीं को यारो मुबारक हों साग़र-ओ-मीना वो दिन गए थे जो हम मै-कदा सजाए हुए सभी को चाहिए साक़ी की मुल्तफ़ित नज़रें मगर है साक़ी-ए-दौराँ नज़र छुपाए हुए बड़े जतन से जिन्हें मुंतख़ब किया हम ने वही सिरे से हमीं को हैं क्यों भुलाए हुए चले भी आओ शब-ए-हिज्र बढ़ती जाती है चराग़ दिल के लहू से हैं हम जलाए हुए है भोला-भाला सा चेहरा अदाएँ भी हैं हसीं बुरी नज़र से रखो ख़ुद को तुम बचाए हुए कभी तो देख मिरी सम्त ऐ जहाँ वाले मैं जी रहा हूँ यहाँ बार-ए-ग़म उठाए हुए तिरे सिवा न किसी और दर पे मेरे ख़ुदा पड़े न जीना कभी मुझ को सर झुकाए हुए मिरी निगाह में 'साहिर' अज़ीम लोग हैं वो हमेशा दिल जो इबादत में हैं लगाए हुए