हाँ ख़ुश हूँ कि इस बज़्म में ग़म-ख़्वार बहुत हैं ग़म-ख़्वार भी ऐसे जो पुर-असरार बहुत हैं चुप रहने की आदत हो तो क्या कुछ नहीं मुमकिन इज़हार-ए-सदाक़त के ख़रीदार बहुत हैं इस शहर-ए-इनायात की तौसीफ़ कहाँ तक साए हैं बहुत कम दर-ओ-दीवार बहुत हैं हँस कर के गुज़र जाइए काँटे हों कि पत्थर क्यों कहिए कि राहें ये दिल-आज़ार बहुत हैं मिलती है यहाँ भीक गदा-ए-रह-ए-शब को क्यूँकर न मिले साहब-ए-ईसार बहुत हैं