हुरमत-ए-ज़िंदगी नहीं जाती ख़ुद-कुशी हम से की नहीं जाती तख़्ता-ए-मश्क़ बन रहे हैं लोग वक़्त की बरहमी नहीं जाती क्यों न हम तर्क-ए-मय-कशी करते मुँह लगी मय-कशी नहीं जाती अपना आतिश-कदा है और मैं हूँ ग़ैर तक शो'लगी नहीं जाती रोज़ मरते हैं रोज़ जीते हैं अपनी शाइस्तगी नहीं जाती क्या अजूबा है जान जा कर भी आँख की रौशनी नहीं जाती जाने किस मस्लहत के मारे हैं लब-कुशाई भी की नहीं जाती हर जतन हम ने कर के देख लिया जीते जी तिश्नगी नहीं जाती ख़ुद को 'हामिद' न शर्मसार करो आप-बीती कही नहीं जाती