सुना है कोई तो दरवाज़ा आसमान में है मिरे ख़याल का पंछी भी किस उड़ान में है तुझे तो ऐ दिल-ए-नादाँ ज़रा शुऊ'र नहीं वो तुझ को याद करेगा तू किस गुमान में है भटक रहा हूँ मैं भँवरे की तरह बाग़ों में मेरी बहार मिरे घर के फूल-दान में है अलावा इस के मुझे कुछ सुनाई देता नहीं भरी हुई कोई आवाज़ मेरे कान में है चला सका न किसी बे-ज़बान पर उस को जो एक तीर अभी तक मिरी कमान में है है जिस ज़बान का चर्चा तमाम आलम में मिरी ग़ज़ल भी तो 'साबिर' उसी ज़बान में है