हँस के पर्दा जो उठाता तो गुलिस्ताँ होता और ही रंग-ए-जहाँ तुझ से नुमायाँ होता हौसला पूछ लो हर ज़र्रे से वहशत का मिरी निगह-ए-होश जो पड़ती तो बयाबाँ होता फ़स्ल-ए-गुल में जो कहीं दामन-ए-गर्दूं का हिलाल हाथ आता तो हमारा ही गरेबाँ होता आइने में वो नज़र देख रहे हैं अपनी दिल अगर पेच में होता तो ये मीज़ाँ होता मिल गए ख़ाक में आँखों से निकल कर नाहक़ अश्क-ए-पुर-ख़ूँ के लिए आप का दामाँ होता नश्तर-ए-इश्क़-ओ-मोहब्बत को निकाला मैं ने दिल में रहता तो ये पैवस्त-ए-रग-ए-जाँ होता दिल की महरूमी-ए-तक़दीर का सदमा है मुझे ये जो गुलशन न हुआ था तो बयाबाँ होता मैं अगर दाग़ भी था दामन-ए-हस्ती के लिए आप के हाथ से मिट जाने का सामाँ होता आलम-ए-यास में सद-शुक्र कि आई मुझे मौत इस बुरे वक़्त में था कौन जो पुरसाँ होता पूजता है किसी काफ़िर को 'वफ़ा' क्यों दिन-रात इस से बेहतर तो यही था कि मुसलमाँ होता