मरने की आरज़ू में मुझे पेच-ओ-ताब है अब ज़िंदगी भी बाइ'स-ए-सद-इज़्तिराब है मौज-ए-ख़लिश ने ले के ये आग़ोश में कहा दरिया-ए-आरज़ू भी ब-रंग-ए-सराब है सहरा में ख़ाक उड़ाने की हाजत नहीं मुझे मुझ से मिरे जुनूँ को भी अब इज्तिनाब है पूछो न हाल-ए-लज़्ज़त-ए-आज़ार ऐ 'वफ़ा' नक़्श-ए-सुकूँ भी माइल-ए-सद-इंक़लाब है