हक़ की है गर तलाश तो ये मान कर चलो अब तक पढ़ा सुना है जो शायद सही न हो वो इल्म जिस से ज़ौक़-ए-तजस्सुस की मौत हो उस इल्म से तो अच्छा है ला-इल्म ही रहो हर बात है किताब की वाइज़ मुझे क़ुबूल तस्दीक़ उस की बस ज़रा दिल से मिरे भी हो मज़हब तो शैख़ हम को विरासत में है मिला तहक़ीक़ कर के कितनों ने ख़ुद है चुना कहो जिस पर किया है हम ने यक़ीं आँख मूँद के मुमकिन है राह-ए-हक़ से वो ख़ुद-आश्ना न हो हर शेर ऐ 'सदा' तिरा हो ताज़गी भरा वो बात कह जो पहले किसी ने कही न हो