हक़ पे चलूँगा और सदा मस्ती में रहूँगा ऐ ज़िंदगी मैं जामा-ए-हस्ती में रहूँगा सहरा पहाड़ दश्त-ओ-समुंदर में रहा हूँ साहब जुनूँ हूँ किस तरह बस्ती में रहूँगा अपनी नज़र से तू ने मुझे क्यों गिरा दिया लगता है बाक़ी उम्र मैं पस्ती में रहूँगा आँखों में आँखें डाल के बातें भी करूँगा जब तक कि तेरी हुस्न-परस्ती में रहूँगा