हक़ीक़तों में ग़म-ए-ज़ात कर के देखते हैं ख़ुदा से अब तो मुनाजात कर के देखते हैं गुमान छोड़ के हालात के सँवरने का यक़ीन-ए-गर्दिश-ए-हालात कर के देखते हैं मिला न कुछ भी बहुत नफ़रतों को देख लिया मोहब्बतों की भी बरसात कर के देखते हैं यही कि तर्क-ए-तअ'ल्लुक़ की वो सज़ा देंगे ये बात है तो चलो बात कर के देखते हैं इक इंतिज़ार में जैसे गुज़र गया दिन तो दिए जलाओ कि अब रात कर के देखते हैं किसी से 'नाज़' कभी हाल-ए-दिल कहा तो नहीं बयाँ कुछ आज तो जज़्बात कर के देखते हैं