जो मोहब्बत को इख़्तियार करे हर्फ़-ए-मतलब न आश्कार करे आदमी को बुलंद रहना है पस्तियों को न इख़्तियार करे है वो इंसान क़द्र के क़ाबिल आदमियत को जो शिआ'र करे हम तो मर मिट चुके हैं जीते जी मौत का कौन इंतिज़ार करे हम भी रखते हैं पास-ए-ख़ुद्दारी कौन इज़हार-ए-हाल-ए-ज़ार करे चाक है जिस का दामन-ए-हस्ती क्यों गरेबाँ को तार-तार करे शौक़ है जिस को ख़ाक होने का मज़हब-ए-इश्क़ इख़्तियार करे हम हैं मसरूफ़-ए-दीद-ए-मुसहफ़-ए-रुख़ कौन नज़्ज़ारा-ए-बहार करे नब्ज़ डूबी मरीज़-ए-उल्फ़त की चारा-गर ख़ाक क्या शुमार करे