हर दम मिरे एहसास पे छाया है कोई और लिखवाता कोई और है लिखता है कोई और आँखों से छलक पड़ते हैं एहसास के मोती धागे में मगर इन को पिरोता है कोई और कोशिश से फ़क़त अपनी भी लिख पाया है कोई है तो ये क़लम मेरा चलाता है कोई और बिखरे हुए जो मेरे ख़यालात हैं इन को एहसास से तहरीर में लाता है कोई और लिख पाती हूँ मैं कब भला जज़्बात को अपने अल्फ़ाज़ को काग़ज़ पे सजाता है कोई और 'नीलम' मैं जहाँ में तो बस इक ज़र्रा हूँ लेकिन इस ज़र्रे की औक़ात बढ़ाता है कोई और