हर इक ख़्वाब-ए-परेशाँ को तो सुलझाया नहीं जाता जो ग़म है दोस्तों का वो भी समझाया नहीं जाता वो इक मुश्किल जो कू-ए-यार से दार-ओ-रसन तक थी वजूद उस का दिमाग़-ओ-दिल में अब पाया नहीं जाता हरारत इश्क़ की डूबी सलासिल की सदाओं में ज़बाँ पर गर्मी-ए-लब क्या है बतलाया नहीं जाता कभी हम साथ रहते थे कभी नाराज़ हो जाते न जाने ज़ेहन से क्यों प्यार का साया नहीं जाता अजब सी एक उलझन है अयाँ करना भी मुश्किल है हिक़ारत का निवाला हम से तो खाया नहीं जाता बदन में आग है 'माहिर' न ठंडक कोई बातों में निगाहों से कोई दिल आज गर्माया नहीं जाता