कहाँ का रंज-ए-मोहब्बत कोई अलम भी नहीं वो मुझ से दूर हुआ इस का कोई ग़म भी नहीं हमेशा सुनते हो तुम बा-वफ़ाओं की बातें कभी हमारी सुनो बेवफ़ा तो हम भी नहीं ग़मों का दौर तो हर इक को घेर लेता है मिरा जो ग़म है किसी और से तो कम भी नहीं हमारे उज़्र-ए-मोहब्बत पे तैश खा के कहा सितम किया है सितम को कहा सितम भी नहीं वो इतनी बार सर-ए-राह मिल गए 'माहिर' ये बे-नियाज़ी का आलम जबीं पे ख़म भी नहीं