हर एक लफ़्ज़ है ज़िंदा अलामतों से तिरी मिरी ग़ज़ल की ये क़ामत नज़ाकतों से तिरी तिरे बग़ैर तो बे-सम्त थी मसाफ़त-ए-उम्र मिरा सफ़र हुआ आसाँ रफ़ाक़तों से तिरी अब इस में तेरी मिरी ख़ामुशी ही बेहतर है कि बात फैल गई है वज़ाहतों से तिरी मिरे रफ़ीक़ मिरे इस क़दर ख़िलाफ़ न थे ये इख़्तिलाफ़ बढ़ा है हिमायतों से तिरी तिरी तलब के हवाले से ज़िंदगी थी मिरी मिरा जवाज़ हुआ ख़त्म क़ुर्बतों से तिरी मैं ख़ार-ओ-ख़स का घरौंदा तू सैल-ए-शौक़ 'नदीम' मैं टूट-फूट गया हूँ मोहब्बतों से तिरी