हर एक शख़्स शनासा दिखाई देता है ये आईने में मुझे क्या दिखाई देता है ये किस मक़ाम पे लाई है आरज़ू मुझ को यहाँ तो ग़ैर भी अपना दिखाई देता है क़रीब जा के तुम्हारे भी लौट आया हूँ कि अपने दर्द का रिश्ता दिखाई देता है मिरी निगाह में चुभते हैं हिज्र के काँटे जो गुल बहार में तन्हा दिखाई देता है