हर क़दम मरहला-दार-ओ-सलीब आज भी है जो कभी था वही इंसाँ का नसीब आज भी है जगमगाते हैं उफ़ुक़ पर ये सितारे लेकिन रास्ता मंज़िल-ए-हस्ती का मुहीब आज भी है सर-ए-मक़्तल जिन्हें जाना था वो जा भी पहुँचे सर-ए-मिंबर कोई मोहतात ख़तीब आज भी है अहल-ए-दानिश ने जिसे अम्र-ए-मुसल्लम माना अहल-ए-दिल के लिए वो बात अजीब आज भी है ये तिरी याद है या मेरी अज़ियत-कोशी एक नश्तर सा रग-ए-जाँ के क़रीब आज भी है कौन जाने ये तिरा शायर-ए-आशुफ़्ता-मिज़ाज कितने मग़रूर ख़ुदाओं का रक़ीब आज भी है