हर ख़ौफ़ हर ख़तर से गुज़रना भी सीखिए जीना है गर अज़ीज़ तो मरना भी सीखिए ये क्या कि डूब कर ही मिले साहिल-ए-नजात सैलाब-ए-ख़ूँ से पार उतरना भी सीखिए ऐसा न हो कि ख़्वाब ही रह जाए ज़िंदगी जो दिल में ठानिए उसे करना भी सीखिए बिगड़े बहुत कशाकश-ए-नाज़-ओ-नियाज़ में अब उस की अंजुमन में सँवरना भी सीखिए होता है पस्तियों के मुक़द्दर में भी उरूज इक मौज-ए-तह-नशीं का उभरना भी सीखिए औरों की सर्द-मेहरी का शिकवा बजा 'सहर' ख़ुद अपने दिल को प्यार से भरना भी सीखिए