हर राज़-ए-निहाँ आज निकल आया ज़बाँ से क्यों छुपता नहीं कुछ भी इस अंदाज़-ए-बयाँ से इक मैं हूँ जिसे कोई तवक़्क़ो है न उम्मीद इक तुम हो लगाए हुए दिल सारे जहाँ से इतनों ने पुकारा कि गया हम से बिछड़ कर दिल ढूँढ के लाएँ भी तो अब लाएँ कहाँ से उस को भी बुलाता है यहाँ कोई तड़प कर मुझ को भी कोई खींचने लगता है वहाँ से इक तुम ही नहीं हाल-ए-दिलाँ जानने वाले होती है ज़माने को ख़बर आह-ओ-फ़ुग़ाँ से पहले तो जुनूँ ने मिरे तय्यार किया बुत अब फोड़ता रहता हूँ मैं सर संग-ए-गिराँ से जीने कि अलामत हो न 'अमृत' तो भला फिर बेकार सी इक बात पे क्यों जाते हो जाँ से