हर रंज क़ुबूल कर रहा हूँ ज़ख़्मों को मैं फूल कर रहा हूँ इक पल की ये ज़िंदगी है मेरी लेकिन इसे तूल कर रहा हूँ जिस जिस को अता किया ख़ुदा ने वो दर्द वसूल कर रहा हूँ जो हर्फ़ फ़े'ल से रूठ जाए उस को मैं फ़ऊल कर रहा हूँ लोहे की खड़ी हुई है दीवार और मैं उसे धूल कर रहा हूँ पहचान के अपने आप को भी फिर भी कहीं भूल कर रहा हूँ अपनों के त'अल्लुक़ात सारे ग़ैरों से वसूल कर रहा हूँ हर सम्त हवा चली कुछ ऐसी शीशम को बबूल कर रहा हूँ हर गाम पे ज़ुल्मतों में रख दे उस को भी रसूल कर रहा हूँ मैं बाद-ए-सबा पे रख के पहरे कलियों को मलूल कर रहा हूँ जिस से है सब इंतिशार बरपा उस को ही उसूल कर रहा हूँ हासिल न हो कुछ 'ज़फ़र' मुझे तो सब काम फ़ुज़ूल कर रहा हूँ