हर शब ख़याल-ए-ग़ैर के मारे अलग-थलग आते हैं ख़्वाब में वो हमारे अलग-थलग गर ग़ैर साथ साए के सूरत न था तो क्यूँ मिस्ल-ए-सबा चमन से सिधारे अलग-थलग बुलबुल वो हूँ कि फ़स्ल के पहले ही बाग़बाँ लेता है बाग़ जिस का इजारे अलग-थलग दाम-ए-बला में फँसते हैं आप आ के सैकड़ों वो बुत हज़ार बाल सँवारे अलग-थलग ऐ गुल तुझे किसी की न मुतलक़ ख़बर हुई ग़ुंचे चटक चटक के पुकारे अलग-थलग ख़ल्वत में भी जो आए हैं जल्वत का ज़िक्र क्या बैठे हुए हैं शर्म के मारे अलग-थलग पेश-ए-नज़र शबीह-ए-ख़याली है अपनी 'शाद' नक़्शे जमे हुए हैं हमारे अलग-थलग