हुई तो जा दिल में उस सनम की नमाज़ में सर झुका झुका कर हरम से बुत-ख़ाने तक तो पहुँचा ख़ुदा ख़ुदा कर ख़ुदा ख़ुदा कर लहद में क्या ज़िक्र रौशनी का सर-ए-लहद भी जो रहम खा कर जला किया जब चराग़ कोई हवा ने ठंडा किया बुझा कर निशान-ए-बरबाद-गान-ए-आलम जो पूछे सहरा में हम ने जा कर सबा से उड़ उड़ के गर्द बैठी बगूले उठ्ठे हवा में आ कर जो चश्म-ए-अंजाम-ए-बीं से देखा बहार दो दिन है फिर ख़िज़ाँ है मआल-ए-गुलशन पे रोई शबनम हँसे गुल-ए-तर जो खिल-खिला कर बुतों की पुर-आब अँखड़ियों में खुला ये देखा जो पुतलियों को ये वो हैं हिन्दू धरम जमन से फिरे जो गंगा चले नहा कर ख़याल-ए-हज्ज-ए-हरम को छोड़ा सुना जो शह-ए-रग से है क़रीं-तर तवाफ़-ए-दिल ही किया किए हम गए न काबे को फेर खा कर ज़मीं में ऐ 'शाद' मर गए पर फ़लक दबाए तो क्या गिला है मियान-ए-तुर्बत हमारे पहलू हमें दबाते हैं मुर्दा पा कर